वितरण माध्यम से आपका क्या आशय है ? वितरण माध्यम को प्रभावित करने वाले घटकों का वर्णन कीजिए। Meaning and Definitions of Channels of Distribution

Meaning and Definitions of Channels of Distribution

वितरण माध्यमों/ वाहिकाओं का अर्थ एवं परिभाषाएँ

वस्तुओं के अधिकार स्वामित्व को अन्तिम उपभोक्ता या औद्योगिक विक्रेता तक पहुँचने में जिन माध्यमों/वाहिकाओं को अपनाया जाता है, उसे वितरण माध्यम कहते हैं। अन्य शब्दों में, उत्पादक से उपभोक्ता तक संस्था का कोई भी क्रम, जिसमें मध्यस्थ या तो बिलकुल नहीं होते अथवा कितनी भी संख्या में हो सकते हैं, वितरण वाहिका कहलाता है। वितरण श्रृंखलाओं की निम्न परिभाषाएँ दी जा सकती हैं-

(1) रिचर्ड बिसकर्क के शब्दों में, “वितरण माध्यम का अभिप्राय उन आर्थिक संस्थाओं की रीतियों से है जिनके द्वारा उत्पादक अपना माल प्रयोगकर्त्ता के हाथों में सौंपता है।” 

(2) अमेरिकन मार्केटिंग एसोसिएशन के अनुसार, “वितरण के माध्यमों से आशय निजी कम्पनी के आन्तरिक संगठन इकाइयों के ढाँचे और कम्पनी के बाहर के एजेन्ट, डीलर, थोक तथा फुटकर व्यापारियों से है जिनके माध्यम से कोई वस्तु या उत्पाद या सेवा का विपणन किया जाता है।”

इस प्रकार उत्पादक से उपभोक्ता तक की संस्थाओं का भी कोई क्रम जिसमें या तो कोई एक मध्यस्थ है या उनकी कोई भी संस्था हो सकती है, वितरण-श्रृंखला कहलाता है।

वितरण-श्रृंखलाओं को प्रभावित करने वाले घटक (Farctors Affecting Choices of Channels of Distribution) 

वितरण लागत को न्यूनतम करने और वितरण कार्य को शीघ्रातिशीघ्र करने के उद्देश्य से प्रत्येक निर्माता के लिए वितरण की एक या अधिक श्रृंखलाओं/माध्यमों/मार्गो का चयन महत्त्वपूर्ण होता है। संक्षेप में, इनका चयन करते समय निम्नलिखित बिन्दुओं को ध्यान में रखना चाहिए-

(1) संस्था संबंधी बातें / घटक-

(1) संस्था का आकार एवं ख्याति— यदि संस्था का आकार बड़ा होता है तो उसके वित्तीय साधन, प्रबंध संबंधी योग्यता तथा अनुभव भी अच्छा है तो छोटी वितरण-श्रृंखला ही पर्याप्त होगी। इसके अतिरिक्त जिस संस्था की ख्याति अच्छी होती है, उसकी वस्तुएँ अपने आप लोकप्रिय हो जाती हैं। ऐसी दशा में निर्माता अपनी इच्छानुसार वितरण माध्यम चुन सकता है। 

(2) वित्तीय साधन— निर्माणी संस्था के वित्तीय साधन कम होने पर मध्यस्थों की सेवा का लाभ उठाया जा सकता है अन्यथा संस्था अपनी ही प्रत्यक्ष वितरण प्रणाली को विकसित कर लेती है।

(3) उत्पादन पैमाना – बड़े-बड़े उत्पादक जो एक प्रकार की भिन्न-भिन्न वस्तुओं का उत्पादन बड़ी मात्रा में करते हैं, विक्रयकत्ताओं की एक बड़ी टोली भी नियुक्त कर सकते हैं। लेकिन कम मात्रा में उत्पादन करने वाले निर्माता अपनी वस्तु को थोक एवं फुटकर विक्रेताओं के माध्यम से भी बेच सकते हैं।

(4) सुविधाएं — निर्माणी संस्था द्वारा वितरण के माध्यम का चयन करते समय यह भी विचार करना है कि वितरण संस्थाओं को कितनी व्यापारिक सुविधाएँ किस सीमा तक प्रदान कर सकती हैं। यदि कम मात्रा में सुविधाएँ उपलब्ध करा सकती हैं तो आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न मध्यस्थों की सेवाएँ ली जाती है।

(5) उद्योग की परम्परा-यदि अन्य निर्माता स्वयं के एजेन्ट नियुक्त करते हैं अथवा एकाकी व्यापारी को माल बेचते हैं तो अन्य निर्माता भी प्रायः उसी का अनुसरण करेंगे।

(II) उत्पाद / वस्तु संबंधी बातें/पटक- 

(1) वस्तु की प्रकृति — जिन वस्तुओं की प्रकृति नाशवान होती है, उनके लिए मध्यजनों की संख्या कम, अधिक समय तक टिकने वाली वस्तुओं के विक्रय हेतु अधिक मध्यस्थों की सेवाएँ ली जा सकती हैं। यही कारण है कि दूध-दही, सब्जी आदि के विक्रय मध्यस्थ कम होते हैं।

(2) वस्तु का आकार, भार, संख्या और मूल्य — बड़े आकार वाली एवं भारी वस्तुओं का वितरण प्रत्यक्ष रूप से करना मितव्ययी एवं सुविधाजनक रहता है। इसके विपरीत छोटे आकार वाली हल्की वस्तुओं का वितरण मध्यस्थों से कराया जाता है। इसके अतिरिक्त जब निर्माता एक या दो वस्तुओं का निर्माण करता है तो स्वयं अपनी वितरण व्यवस्था रखता है। यही नहीं, अधिक मूल्य वाली वस्तुओं को उत्पादक स्वयं या एजेन्ट के माध्यम से वितरित करता है।

(3) प्रतिस्पद्धी वस्तुओं की वितरण प्रणाली— वितरण प्रणाली क्या हो ? यह निश्चित करते समय प्रतिस्पद्ध व्यापारियों द्वारा अपनायी जाने वाली वितरण व्यवस्था या अध्ययन जरूरी हो जाता है ताकि उपयुक्तता पर विचार कर उचित माध्यम चुना जा सके।

(4) उत्पाद का तकनीकी स्वभाव— इस दशा में विक्रय से पहले तथा बाद में ग्राहकों को कुछ सेवाएँ देनी आवश्यक होती हैं तो निर्माता द्वारा प्रत्यक्ष विक्रय किया जाता है। इसके लिए निर्माता कुछ विक्रेताओं की नियुक्ति कर लेते हैं, जो ग्राहकों को उत्पाद के तकनीकी स्वभाव को समझा देते हैं।

(5) वस्तुओं की स्टाइल एवं फैशन— जिन वस्तुओं का फैशन जल्दी बदलता है, उनका विक्रय सीधे निर्माता द्वारा अथवा उसके एजेन्ट के माध्यम से किया जाये ताकि ग्राहकों से प्रत्यक्ष संबंध स्थापित हो सके और परिवर्तन का पता लगता रहे और वांछित सुधार भी किया जा सके।

(6) राजनीतिक कारण— सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली का सफल संचालन करने के लिए अपने हाथ में कार्य संभाला है। परिणामतः वितरण प्रणालियाँ प्रभावित हुई। 

(III) बाजार/ग्राहक संबंधी बातें/घटक-

(1) क्रेता सम्बन्धी घटक— उपभोक्ता ग्राहक की दशा में फुटकर व्यापारी की सेवाएँ लेनी आवश्यक होती हैं, जबकि औद्योगिक ग्राहक होने पर वस्तु सीधे एजेन्ट या थोक व्यापारी के माध्यम से बेची जा सकती है। क्रेता की संख्या कम है तो उत्पादक सीधा माल बेच सकता है अन्यथा मध्यस्थों की सेवाएँ लेनी आवश्यक हैं। इसके अतिरिक्त यदि क्रेता किसी एक स्थान या क्षेत्र विशेष में ही केन्द्रित है, तो प्रत्यक्ष वितरण अन्यथा अप्रत्यक्ष वितरण उचित रहता है। 

(2) आदेश का आकार— जब उत्पादक को प्राप्त आदेशों की संख्या तो कम किन्तु उनकी राशि बड़ी होती है तो उनकी पूर्ति सीधे उत्पादक द्वारा की जाती है तथा न्यूनतम मध्यस्थ वाली प्रणाली का चयन किया जाता है। इसके विपरीत आदेशों की संख्या अधिक किन्तु उनकी राशि कम होने पर थोक एवं फुटकर व्यापारियों की सेवाएँ ली जा सकती हैं।

(3) बाजार की भौगोलिक स्थिति— बाजार क्षेत्र के अधिक विस्तृत होने पर अधिक मध्यस्थों की आवश्यकता होती है, जबकि बाजार का भौगोलिक क्षेत्र सीमित होने पर उत्पादक सीधे माल बेच सकता है अर्थात् कम मध्यस्थ चाहिए।

(4) क्रय की बारम्बारता— जो वस्तुएँ दैनिक उपयोग की होती हैं और बार-बार खरीदी जाती हैं तो अधिक मध्यस्थों की सेवाएं ली जाती हैं। इसके विपरीत, जिन वस्तुओं के आदेश एक ही ग्राहक द्वारा यदा-कदा प्राप्त होते हैं, उनके विक्रय हेतु प्रत्यक्ष वितरण प्रणाली काम में लायी जाती है।

(5) ग्राहकों की क्रय आदतें- यदि वस्तु के ग्राहक साख सुविधा चाहते हैं तो निर्माता यह देखेगा कि क्या वह स्वयं यह सुविधा देने की स्थिति में है ? यदि नहीं, तो वह ऐसे मध्यस्थों की सहायता लेगा जो ग्राहकों को साख सुविधा देने को तैयार हों।

(IV) मध्यस्थ संबंधी घटक-

(1) उपलब्धता— एक निर्माता को जिस प्रकार के मध्यस्थों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार के मध्यस्य मिलने चाहिए। यदि वह एकमात्र वितरक चाहता है और उसको ऐसे मध्यस्थ नहीं मिलते हैं तो उसे अपने वितरण मार्ग में अवश्यक परिवर्तन करना होगा।

(2) नीति अनुसरण— कभी-कभी मध्यस्थ किसी वस्तु को बेचना चाहता है, लेकिन उसकी यह होती है कि वस्तु को निर्धारित मूल्य से अधिक मूल्य पर बेचने की अनुमति दे दी जाये। यदि निर्माता निर्धारित मूल्य पर बेचने की अपनी ख्याति बनाना चाहता है तो उसको ऐसे मध्यस्व मान्य नहीं होंगे।

(3) विक्रय वृद्धि— वितरण माध्यम का चयन करते समय संभावित बिक्री को वृद्धि का प्रतिशत क्या रहेगा, का भी पता लगाना होगा। अतः ऐसे मध्यस्थों का चयन किया जाये जो विक्रय में वितरण लागत की तुलना में पर्याप्त वृद्धि कर सकें। (4) सेवाएँ— जो मध्यस्थ जितनी अधिक सेवाएं देने को तैयार है, उसी को ही चुना जाना चाहिए। यदि किसी नयी वस्तु का निर्माण किया जा रहा है तो उसके लिए विज्ञापन एवं विक्रय संवर्द्धन अपनाने के लिए कोई प्रतिनिधि चुनना चाहिए न कि मध्यस्थ ।

(5) विक्रय संभावनाएँ—प्रत्येक माध्यम से कितनी विक्रय वृद्धि को संभावना है,’ सामान्य परिस्थिति में उसे उस माध्यम का चयन करना चाहिए, जिससे सर्वाधिक विक्रय वृद्धि की संभावना हो। इस संबंध में वितरण लागतों को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। 

(V) सरकार संबंधी बातें / घटक-

भारत में दवाइयों को बेचने वाले मध्यस्थों को सरकार से लाइसेंस लेना पड़ता है। अतः दवाइयों के निर्माता को अपना वितरण माध्यम चुनते समय इस बात को ध्यान में रखना होगा कि वितरण लाइसेंसधारी विक्रेताओं के माध्यम से ही हो। अन्यथा कम्पनी एवं विक्रेता के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही की जा सकती है। उसी प्रकार शराब, भाँग आदि भी लाइसेंसधारी (ठेकेदार) मध्यस्थों के माध्यम से हो बेची जा सकती है।

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