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विपणन के कार्य अथवा क्षेत्र का स्पष्टीकरण दो भागों में करते हैं-
(1) विपणन के प्रबंधकीय कार्य या क्षेत्र-
(1) नियोजन- विपणन कार्य के नियोजन के अन्तर्गत उत्पादन की जाने वाली वस्तु के रूप, डिजाइन, मूल्यों का ग्राहकों की रुचि के अनुरूप निर्धारण, बाजारों का निर्धारण जिनमें | वह वस्तु विक्रय की जाती है तथा वितरण मार्ग का निर्धारण आदि आता है। प्रतिवर्ष वस्तु में क्या सुधार करने हैं, किस वस्तु का बाजार में विक्रय जारी रखना है, वस्तु किस वितरण मार्ग से पहुँचेगी एवं किस माध्यम से पहुँचेगी आदि योजनाएँ बनायी जाती हैं।
(2) संगठन— संगठन कार्य भी विपणन का है। संगठन का निर्धारण संस्था के आकार के अनुसार करना होता है। छोटी संस्था के विपणन का कार्य मुख्य प्रबंधक ही कर लेता है, जबकि बड़े आकार की संस्था में विपणन प्रबंधक करता है। इसके अधीन विभिन्न कार्यों को करने के लिए अलग-अलग विभाग होते हैं।
(3) स्टॉकिंग- विपणन प्रबंध का कार्य अन्य महत्त्वपूर्ण कार्य विक्रय प्रबंधकों, विक्रेताओं आदि की नियुक्ति, प्रशिक्षण एवं वेतन आदि का निर्धारण है जिसके लिए मानव संसाधन प्रबंधक की कार्यविधि अपनायी जाती है।
(4) निर्देशन- विपणन का कार्य कर्मचारियों को समय-समय पर निर्देशन देना भी होता है। विपणन प्रबंधक अपने अधीनस्थों को समय एवं परिस्थितियों के अनुसार यह बतलाता है कि क्या, कब, क्यों, कैसे एवं किस प्रकार कार्य करना है। इसके अतिरिक्त समय-समय पर आने वाली विपणन समस्याओं के निवारण हेतु भी निर्देश दिये जाते हैं।
(5) नियंत्रण – विपणन योजना में बाजार की परिस्थितियों, उपभोक्ता की माँग एवं रुचि तथा देश की अर्थव्यवस्था में परिवर्तन रुकावटें डालते हैं। ये विपणन क्रियाओं के कुशल नियंत्रण द्वारा रोकी जा सकती है। इसके लिए विपणन प्रबंधक इन क्रियाओं की जाँच एवं गलतियों में सुधार कर योजना को सफल बनाता है।
(II) विपणन के क्रियात्मक कार्य या क्षेत्र—
(1) उत्पादन नियोजन – विपणन का कार्य उत्पादन नियोजन करना है। इसलिए एक विपणन प्रबंधक उपभोक्ता की आवश्यकता, इच्छा, रुचि, विचार एवं माँग को जानने का प्रयास करता है तथा उनकी रुचि के अनुरूप वस्तु का निर्माण भी करता है।
(2) क्रय- एक विपणनकर्ता के लिए क्रय बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य होता है क्योंकि उसकी सफलता उसकी क्रय की कार्यकुशलता पर निर्भर करती है। इसलिए वह इसके अन्तर्गत ग्राहक को रुचि के अनुसार उचित मूल्य पर खरीदता है, क्रय नीति निश्चित करता है, क्या खरीदना है, कब खरीदना है एवं कहाँ से खरीदना है आदि कार्यों का निष्पादन करता है।
(3) वस्तुओं का एकत्रीकरण – विपणन के कार्यों एवं क्षेत्र के अन्तर्गत उपभोक्ताओं की माँग के अनुरूप वस्तुओं का क्रय एवं उत्पादन करके विक्रय केन्द्रों के समीप वस्तुओं का पर्याप्त मात्रा में एकत्रीकरण करना आता है। परिणामस्वरूप समय-समय पर बाजार की माँग के अनुसार माल को व्यापारियों तक पहुँचा दिया जाता है।
(4) श्रेणीयन एवं प्रमापीकरण — इनका कृषि पदार्थ या कच्चे माल का क्रय-विक्रय करने वाली संस्था के लिए विशेष महत्व है। इसलिए इसमें व्यापारी इनका एकत्रीकरण करके. अलग-अलग श्रेणी के अनुसार श्रेणीयन करता है। साथ ही वस्तु की अलग किस्मों का प्रमापीकरण कर दिया जाता है तथा प्रत्येक प्रमाप को अलग-अलग अंक भी दे दिया जाता है।
(5) ब्राण्डिंग — प्रत्येक निर्माता अपनी वस्तु को दूसरे निर्माता की वस्तु से अलग करने के लिए अपनी वस्तु को नाम देता है। इससे ग्राहकों को सरलता से पता लग जाता है कि कौन- सी वस्तु कौन-सी कम्पनी की है एवं विभिन्न ब्राण्ड में से इच्छित वस्तु का चुनाव कर सकते हैं।
(6) संग्रहण- वस्तु के उत्पादन को विक्रय के समय तक सुरक्षित अवस्था में रखने के लिए संग्रहण की आवश्यकता होती है। इसके लिए बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ बाजारों के समीप अपने भण्डार गृह बनाये रखती हैं या किराये पर लेती हैं। तत्पश्चात् उनमें उचित मात्रा में अपना माल संग्रह करके रखा जाता है और आवश्यकतानुसार उनकी बाजार में पूर्ति कर दी जाती है।
(7) यातायात- वस्तु को कारखाने से संग्रह गृह एवं यहाँ से बाजार तक पहुँचाने के लिए यातायात की आवश्यकता होती है। दूर-दूर के बाजारों में माल पहुँचाने के लिए संस्था के पास यातायात की पर्याप्त व्यवस्था होना अनिवार्य है। इसके लिए कम्पनियाँ अपने सामने का उपयोग करती है और ठेके पर दे दिया जाता है।
(8) पैकिंग – वस्तुओं के अलग-अलग ब्राण्ड देने, यातायात के योग्य बनाने, ग्राहकों को अलग-अलग मात्रा में वस्तुओं की आवश्यकता को पूरा करने के लिए पैकिंग की आवश्यकता होती है। इसके अन्तर्गत वस्तु की प्रकृति एवं उपयोगिता की दृष्टि से अनेक साधनों का चुनाव किया जाता है और उपभोक्ता की रुचि तथा सुविधा को ध्यान में रखते हुए पैकिंग की जाती है।
(9) मूल्य निर्धारण- प्रत्येक उत्पादक वस्तुओं को विपणन हेतु अनेक बातों को ध्यान में रखते हुए मूल्य निर्धारण करता है ताकि ये वस्तु विक्रय में रुचि लें। इसके अतिरिक्त इसमें विभिन्न ग्राहकों को दी जाने वाली छूट का भी निर्धारण करना होता है।
(10) विक्रय— ग्राहकों से संबंध स्थापित करना, इनके सम्मुख वस्तुएँ रखना, ने वस्तुएँ क्रय करने के लिए प्रेरित करना और वस्तुएँ खरीदने की अवस्था में उन्हें सुपुर्द करन विपणन का कार्य है। इसके लिए अपनी शाखाओं अथवा मध्यस्थों का उपयोग किया जाता है।
(11) विज्ञापन- उत्पादक को उपभोक्ताओं की अपने उत्पाद, उसके गुण, मूल्य, प्राप्त होने का स्थान आदि के विषय में ज्ञान प्रदान करन होता है अन्यथा विक्रय असंभव है। यह कार्य विज्ञापन की सहयता से किया जाता है।
(12) जोखिम उठाना— उत्पादक को विपणन क्षेत्र में होने वाले परिवर्तनों, मूल्यों में उतार-चढ़ाव, माँग में परिवर्तन, अनुचित प्रतिस्पर्द्धा आदि के कारण जोखिम उठानी पड़ती है। अतः इससे सुरक्षा पाने के लिए विभिन्न प्रकार की व्यवस्था विपणन प्रबंधक करता है।
(13) विपणन- अनुसंधान विपणन अनुसंधान के अन्तर्गत एक विपणन प्रबंधक के अनेक कार्य आते हैं, जैसे बाजार अनुसंधान, विक्रय अनुसंधान, उत्पाद अनुसंधान, विज्ञापन अनुसंधान क्रय प्रेरणा अनुसंधान, विक्रय विधि अनुसंधान एवं निर्यात विपणन अनुसंधान आदि । करके इसमें विपणन संबंधी विभिन्न तथ्यों की खोज एवं विश्लेषण किया जाता है ताकि विपणन समस्याओं का उचित हल ढूंढा जा सके।
(14) उत्पाद नीतियाँ- विपणन के क्षेत्र में नीतियों का निर्धारण भी सम्मिलित है। इसलिए इसमें वस्तुओं की गुणवत्ता, आकार, रूप, रंग, डिजाइन, शैली, लेबल आदि से संबंधित कर नीतियों का निर्माण किया जाता है। इसी प्रकार वस्तु नवकरण, वस्तु सुधार, वस्तु परित्याग, वस्तु कौन- सरलीकरण एवं विविधिकरण आदि संबंधित नीतियाँ भी सम्मिलित की जाती हैं।
(15) विपणन संवर्द्धन— विपणन संवर्द्धन के अन्तर्गत विज्ञापन, विक्रयकला, व्यक्तिगत विक्रय, प्रचार-प्रसार, जनसम्पर्क एवं विक्रय संवर्द्धन आदि विधियों का उपयोग किया जाता है। इसके लिए विपणन को इन विभिन्न साधनों का एक उपयुक्त मिश्रण तैयार करना पड़ता है।
(16) विक्रय पश्चात् सेवा— वस्तुओं को उपयोगी एवं कार्यशील दशा में बनाये रखने अपन के लिए ग्राहकों को विक्रय पश्चात् अनेक सेवाएँ प्रदान करानी होती हैं। इसमें वस्तु की निःशुल्क मरम्मत, सफाई, देखभाल, क्षतिपूर्ति रख-रखाव एवं वस्तु बदलने की सुविधा आदि सम्मिलित हैं।