उत्पाद जीवन-चक्र क्या है उत्पाद जीवन-चक्र की विभिन्न अवस्थायें समझाइए, explain what is product life cycle

explain what is product life cycle

उत्पाद जीवन-चक्र क्या है

उत्पाद जीवन-चक्र अवधारणा उत्पाद के जन्म, विकास और पतन की विभिन्न अवस्थाओं को दर्शाता है। अन्य शब्दों में, उत्पाद जीवन-चक्र अवधारणा एक जीवित प्राणी की तरह ही है, जिसमें उत्पाद का जन्म होता है, कुछ समय तक विकसित होता है। अन्त में परिपक्वता को प्राप्त करता है, तत्पश्चात् मृत्यु के लिए पतन की ओर अग्रसर हो जाता है।

उत्पाद जीवन-चक्र अवधारणा को इस प्रकार भी स्पष्ट किया जा सकता है— 

जिस तरह मनुष्य को अपने जीवनकाल में विभिन्न स्थितियों में से गुजरना पड़ता है, उसी प्रकार प्रत्येक उत्पाद को भी विभिन्न स्थितियों में से होकर गुजरना पड़ता है। मानव जीवन चक्र को शैशव, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, प्रौढ़ावस्था तथा वृद्धावस्था में से होकर गुजरना पड़ता है, उसी प्रकार प्रत्येक उत्पाद को भी प्रस्तुतीकरण, विकास परिपक्वता तथा पतन व अप्रचलन की अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है अर्थात् उत्पादों को अपने जीवनकाल में जिन अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है, वह उत्पाद जीवन-चक्र कहलाता है।

उत्पाद जीवन-चक्र की मान्यतायें (Assumptions of Product Life-Cycle)

उत्पाद जीवन-चक्र की मुख्य मान्यताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) प्रत्येक उत्पाद अथवा वस्तुओं का मनुष्यों एवं अन्य प्राणियों की तरह एक जीवन-चक्र है।

(2) प्रत्येक उत्पाद का जीवन-चक्र सामान्यतः विभिन्न क्रमागत अवस्थाओं को पार करता हुआ आगे बढ़ता है।

(3) प्रत्येक उत्पाद का जीवन-चक्र बाजार में प्रस्तुतीकरण से प्रारम्भ होता है और बाजार विकास तथा बाजार परिपक्वता की अवस्थाओं से गुजरता हुआ उसकी बाजार पहल की अवस्था तक पहुँचकर समाप्त होता है।

(4) उत्पाद जीवन-चक्र की विभिन्न अवस्थाओं में वस्तु के गुजरने की गति एक समान न होकर गति में भिन्नता होती है। इसलिए उत्पाद का विक्रय एवं उससे अर्जित लाभ बढ़ता एवं घटता है।

(5) व्यावसायिक उपक्रम के कई लाभ प्रारम्भिक विकासावस्था में तेजी से बढ़ते हैं और परिपक्वता की अवधि में प्रतिस्पद्ध दशाओं के कारण गिरने लगते हैं, फिर भी परिपक्वता की अवस्था में कुल मिलाकर बिक्री की मात्रा बढ़ती रहती है।

(6) जीवन-चक्र की प्रत्येक अवस्था में उत्पाद की बाजार स्थिति बाजार परिस्थितियों से प्रभावित होती है।

(7) उत्पाद का जीवन-चक्र जीवित प्राणी की तुलना में प्रायः सीमित होता है।

(8) परिपक्वता की अवस्था में लाभों में परिवर्तन होने के साथ-साथ उत्पादन के जीवन- चक्र की विभिन्न अवस्थाओं के दौरान इन्जीनियरिंग तथा अनुसंधान, उत्पादन, विपणन, मानव संसाधन एवं वित्तीय नियन्त्रण क्रियाओं में परिवर्तन करते रहना आवश्यक है।

उत्पाद जीवन-चक्र की विभिन्न अवस्थायें एवं इनके लिए उपयुक्त व्यूहरचनाएँ (Different Stages of Product Life-Cycle and Suitable Strategies for Stages)

उत्पाद विकास अवस्था से लेकर पतन से मृत्यु तक की उत्पाद जीवन चक्र अवधारणा को छः अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। उत्पाद के विकास की प्रत्येक अवस्था पर विपणन प्रबन्धक को बाजार की ऐसी दशाओं का सामना करना पड़ता है, जिनमें भिन्न-भिन्न व्यूह रचनाओं की आवश्यकता होती है। अतः एक कुशल विपणन प्रबन्धक को उत्पाद जीवन-चक्र की विभिन्न अवस्थाओं को मान्यता देनी चाहिये तथा प्रत्येक स्तर में आने वाली विपणन अवस्थाओं से निपटना सीखना चाहिये।

उत्पाद जीवन-चक्र की विभिन्न अवस्थाएँ एवं इन अवस्थाओं के लिए एक विपणन प्रबन्धक द्वारा अपनायी जाने वाली व्यूहरचनाएँ निम्नलिखित है-

(I) उत्पाद विकास अवस्था-

उत्पाद जीवन-चक्र अवस्थाओं में यह उत्पाद के जन्म की अवस्था है। इसमें उत्पाद का जाँच विपणन (Test Marketing) किया जाता है। तत्पश्चात् उत्पाद के व्यवसायीकरण का कार्य प्रारम्भ होता है। इस अवस्था में केवल विनियोग लागतें होती हैं, विक्रय की मात्रा लगभग शून्य होती है। अतः इस चरण में लाभ नहीं होता है।

उत्पाद विकास अवस्था में किसी विशेष विपणन व्यूहरचना को नहीं अपनाया जाता है। इसका कारण यह है कि इसमें तो उत्पाद के सकल बाजार परीक्षण करने एवं ग्राहकों को आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने योग्य उत्पाद विकास करने पर विशेष ध्यान दिया जाता है। 

(II) बाजार प्रस्तुतीकरण अवस्था-

उत्पाद विकास का कार्य पूरा हो जाने के साथ ही उत्पाद को बाजार में प्रस्तुत करने की अवस्था आती है, जिसे मार्गदर्शक अवस्था (Pioneering Stage) भी कहते हैं। इसमें उत्पाद को बाजार में प्रस्तुत किया जाता है और ग्राहकों को उससे परिचित कराने का प्रयास किया जाता है। उत्पाद नवीन होने और सामान्य रूप से उससे अपरिचित होने के कारण उपभोक्ता उसका क्रय करने में हिचकिचाहट करते हैं। फलस्वरूप इस अवस्था में उत्पाद की बिक्री कम होती है तो लाभ कम होना स्वाभाविक है। इसी प्रकार इस अवस्था में लागत भी बढ़ जाती है क्योंकि उपभोक्ताओं की स्वीकृति प्राप्त करने के उद्देश्य से काफी संवर्द्धनात्मक व्यय (Promotional Expenses) किये जाते हैं फिर भी अनेक उत्पाद इस अवस्था में फैल हो जाते हैं।

बाजार प्रस्तुतीकरण अवस्था में ये विपणन व्यूहरचनाएँ अपनायी जा सकती हैं.

(1) उत्पाद के लिए सघन विज्ञापन अभियान चलाया जाना चाहिये। 

(2) उत्पाद के लिए समुचित विक्रय संवर्द्धन उपभोक्तागत एवं व्यापारीगत आदि कार्यक्रम चलाये जाने चाहिये।

(3) मध्यस्थों की नियुक्ति का आधार ‘चुनिन्दा’ रखना चाहिये।

(4) उत्पाद का मूल्य ‘सामान्य लाभ नीति’ पर आधारित होना चाहिये।

अतः एक विपणन प्रबन्धक को अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करना चाहिये। इसका कारण स्पष्ट है कि इस अवस्था में उत्पाद को सफलता या विफलता प्राप्त होती है।

(III) विकास अवस्था-

बाजार में प्रवेश करने के पश्चात् जब उत्पाद उपभोक्ताओं को अपेक्षित सन्तुष्टि प्रदान करने में सफल रहता है तो बिक्री में वृद्धि होने लगती है और उत्पाद तीव्र गति से विकास की ओर बढ़ने लगता है। उत्पाद की बिक्री बढ़ते जाने पर अन्य प्रतिस्पद्ध संस्थाएँ भी बाजार में प्रवेश करती हैं। इससे बाजार का विस्तार होता है, मध्यस्थों की संख्या बढ़ती है और प्रचार-प्रसार भी बढ़ता है। इस अवस्था में विक्रय बढ़ने से प्रति इकाई लागत गिरने लगती है और लाभों में वृद्धि होती है।

विकास अवस्था में निम्नलिखित विपणन व्यूहरचनाएँ अपनायी जा सकती हैं-

(1) संस्था को अपना तीव्र विकास करने पर जोर देना चाहिये।

(2) उत्पाद की किस्म में सुधार करना चाहिये।

(3) उत्पाद में नवीन लक्षणों को जोड़ना चाहिये। 

(4) उत्पाद के नये मॉडल प्रस्तुत करने चाहिये।

(5) संस्था को नये बाजारों में प्रवेश करना चाहिये।

(6) वितरण के नवीन माध्यमों को अपनाना चाहिये।

(7) उत्पादों के मूल्यों में कमी करके अधिकाधिक ग्राहकों को आकर्षित करना चाहिये।

(8) उत्पाद पर पर्याप्त गारण्टी एवं अन्य सुविधाएँ प्रदान करानी चाहिये।

(9) विज्ञापन एवं विक्रय संवर्द्धन कार्यक्रमों पर अधिक जोर देना चाहिये।

(IV) परिपक्वता अवस्था-

यह देखा गया है कि प्रत्येक उत्पाद के जीवन काल में एक अवस्था ऐसी आती है, जब उसके विक्रय की गति स्थिर हो जाती है और फिर धीरे-धीरे विकास की गति कम होने लगती है। यह अवस्था उत्पाद की परिपक्वता की स्थिति को दर्शाती है। इस अवस्था में प्रतिस्पर्द्धा तीव्र होती है और लाभ की दर भी घटने लगती है। फर्म के लिए संवर्द्धनात्मक साधनों पर अधिक व्यय करना आवश्यक हो जाता है। इससे लाभों पर दबाव बढ़ने लगता है। ऐसी दशा में फर्म उत्पाद रेखा को भी ऊपर या नीचे बढ़ा सकती है। किन्तु इससे लागतें बढ़ती हैं तथा लाभों पर और दबाव बढ़ने लगता है।

कालान्तर में विक्रय वृद्धि की दर में कमी होते रहने से संस्था के लिए प्रतिस्पर्द्धा में टिके रहना मुश्किल होता है, कीमत में कमी करना आवश्यक हो जाता है एवं दूसरी ओर विज्ञापन एवं विक्रय संवर्द्धन के खर्चों में भी वृद्धि होने लगती है। इतना ही नहीं फर्म को प्रतिस्पर्द्धा में बने रहने के लिए उत्पाद अनुसंधान तथा सुधार पर भी व्यय करना पड़ता है। इन सबके परिणामस्वरूप लाभ घटने लगता है, कमजोर फर्मे प्रतिस्पर्द्धा के बाहर हो जाती हैं और सुदृढ़ संस्थाएँ हो प्रतिस्पर्द्धा में टिकी रहती हैं।

परिपक्वता अवस्था में निम्नलिखित विपणन व्यूहरचना अपनाना श्रेष्ठ होता है- 

(1) विज्ञापन अभियान में तेजी लानी चाहिये।

(2) विक्रय संवर्द्धन के ऐसे साधनों को अपनाना चाहिये जो ग्राहकों को आकर्षित एवं प्रभावित कर सके।

(3) उत्पाद के नवीन उपयोग ढूँढने चाहिये एवं नये उपभोक्ता अथवा प्रयोगकर्त्ता की खोज करनी चाहिये। 

(4) बड़े-बड़े मध्यस्थों अथवा फुटकर व्यापार गृहों की सेवाएँ लेनी चाहिये।

(5) उत्पाद मिश्रण में परिवर्तन करना चाहिये।

(6) उत्पादों के मूल्यों में कमी करने का प्रयास करना चाहिये ताकि नये उपभोक्ताओं को ही आकर्षित नहीं किया जा सके अपितु प्रतिस्पद्धाओं के ग्राहकों को भी खींचा जा सके। (

7) ग्राहकों को अधिक सेवाएँ एवं सुविधाएँ प्रदान करनी चाहिये।

(8) उत्पाद में नवीनता लाने के लिए शोध एवं विकास के प्रयासों में तेजी लानी चाहिये।

यही नहीं, उत्पाद के रंग, रूप, किस्म आदि में भी परिवर्तन करना चाहिये।

(V) संतृप्ति अवस्था –

उत्पाद जीवन-चक्र की अवस्था में प्रतिस्पर्द्धा और तीव्र हो जाती है। बाजार में अनेक ब्राण्ड के उत्पाद आ जाते हैं। फलस्वरूप संस्थाएँ अपने विद्यमान उत्पादों के नये-नये उपयोग खोजने लगती हैं। किस्म एवं डिजाइन में परिवर्तन करके उत्पादों को बाजार में जमाने का प्रयास करने लगती हैं। संस्थाएँ अपनी लागतों को कम करने के तरीके ढूंढती हैं। ऐसे में मध्यस्थों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण हो जाती है। इस प्रकार इस अवस्था में उत्पाद का विकास पूर्णतः रुक जाता है और उत्पाद की लाभ अर्जन क्षमता पूर्णतः समाप्त हो जाती है।

संतृप्ति अवस्था में उन सभी विपणन व्यूहरचनाओं को अपनाया जा सकता है, जो इस अवस्था के पूर्व परिपक्वता अवस्था में अपनायी जा सकती है, जैसे- विज्ञापन अभियान तेज करना, आकर्षित एवं प्रभावित करने वाले विक्रय संवर्द्धन, साधनों को अपनाना, उत्पादों के नवीन उपयोग ढूँढ़ना, उत्पादों के मूल्यों में कमी करना और ग्राहकों को सेवाएँ एवं सुविधाएँ प्रदान करना। इनके अतिरिक्त संस्थाओं को अपनी लागतों को घटाने के उपाय भी करने चाहिये। 

(VI) पतन अवस्था-

उत्पाद जीवन चक्र को विभिन्न अवस्थाओं में यह अन्तिम अवस्था है। इसमें उत्पाद का विक्रय निरन्तर गिरता जाता है। इसलिए इसे ‘अधोमुखी पतन अवस्था’ भी कहते हैं। उत्पाद के पतन को अवस्था में प्रवेश करने के अनेक कारण होते हैं, जैसे—उत्पाद का फैशन में न रहना, उपभोक्ताओं की रुचि में परिवर्तन हो जाना, प्रतिस्पर्द्धा बढ़ जाना, उत्पादन की तकनीक पुरानी हो जाना और उन्नत उत्पादों का बाजार में आ जाना आदि। इन कारणों के फलस्वरूप संस्था को बिक्री एवं लाभों में कमी होने लगती है। इसलिए कई संस्थाओं को बाजार छोड़ना पड़ता है।

पतन अवस्था में विपणन व्यूह रचना ये हो सकती है- 

(1) प्रतिस्पर्द्धा का मुकाबला करने की योजना बनानी चाहिये ताकि उत्पादों का बाजार में अस्तित्व बना रहे।

(2) अलाभकारी मध्यस्थों को हटाया जाना चाहिये।

(3) विज्ञापन देने की आवश्यकता हो तो दिया जाना चाहिये।

(4) परिस्थितियों को देखकर उत्पादों के मूल्यों में कटौती करनी चाहिये।

(5) लाभों में भारी कमी को रोकने के लिए सभी प्रकार की लागतों में कमी लाने के उपाय किये जाने चाहिये।

(6) उत्पादों के संवर्द्धनात्मक व्ययों को कम कर देना चाहिये।

(7) हानि से बचने के लिए हानिप्रद उत्पादों को किसी अन्य संस्था को बेच देना चाहिये।

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