उत्पादन नियोजन एवं नियंत्रण से क्या आशय है ? Meaning of Production Planning and Control?

Meaning of Production Planning and Control?

उत्पादन नियोजन एवं नियंत्रण का आशय 

उत्पादन नियोजन एवं नियंत्रण का आशय संस्था को सामग्री तथा भौतिक सुविधाओं को पूर्व निर्धारित उत्पादन लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में अधिकतम कुशलता वाली विधि से निर्देशित एवं समन्वित करना है।

जे.बी. कार्सन के अनुसार “उत्पादन नियोजन एवं नियंत्रण से आशय निर्माणी प्रक्रिया के पूर्व नियोजन तथा उसके विधिवत् संगठन से है। इसमें विशेषतः सामग्रियों, विधियों, यंत्रों आदि का मार्ग निर्देशन, अनुसूचियन, निष्पादन आदि को सम्मिलित किया जाता है। गुण, मात्रा, स्थान और समय के संदर्भ में वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिए सामग्री, श्रम, यंत्र आदि की पूर्ति का अध्ययन करना ही इसका अंतिम उद्देश्य होता है।”

उत्पादन नियोजन एवं नियंत्रण के मुख्य घटक एवं कार्य (Main Factors and Functions of Porduction Planning and Control)

प्रायः उत्पादन नियोजन एवं नियंत्रण प्रक्रिया एक संस्था से दूसरी संस्था में भिन्न होती है । परन्तु सामान्यतः इस प्रक्रिया के प्रमुख घटकों/कार्यों एवं तत्वों को दो रूपों में देखा जाता है— उत्पादन नियोजन एवं उत्पादन नियंत्रण। लेकिन हम वहाँ केवल उत्पादन प्रक्रिया के तत्व — मार्ग-निर्धारण, अनुसूचियन, प्रेषण एवं अनुवर्तन का ही विवेचन करेंगे, जो इस प्रकार हैं

(I) मार्ग निर्धारण (Routing )-

मार्ग/पथ-निर्धारण का आशय उत्पादन प्रक्रिया तथा उसमें आने वाली विभिन्न अवस्थाओं को निर्धारण करने से होता है। अन्य शब्दों में, मार्ग-निर्धारण में उन मार्गों का चुनाव किया जाता है जिन पर होकर सामग्री कच्ची हालत से निर्मित दशा में गुजरेगी। यह उत्पादन क्रियाओं को, उनके मार्ग एवं क्रम को और उसके आवश्यक उपकरणों तथा प्रक्रियाओं की मात्रा एवं किस्म बतलाता है। यही नहीं, यह मुख्यतः निर्धारित करता है कि उत्पाद पर क्या कार्य होगा, कहाँ होगा और कैसे होगा ?

इस प्रकार मार्ग-निर्धारण के अन्तर्गत सम्पादित की जाने वाली क्रियाओं का निर्धारण, उनका क्रम तथा मशीनों एवं श्रमिकों का निर्धारण किया जाता है। 

मार्ग-निर्धारण का मुख्य उद्देश्य सुविधाजनक एवं मितव्ययितापूर्ण उत्पादन प्रक्रिया का निर्धारण करना है। इसके अन्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

(1) उत्पादन प्रक्रिया को सरल तथा प्रभावी बनाना।

(2) उत्पादन प्रक्रिया में लगने वाले समय को न्यून करना । 

(3) कुल उत्पादन लागत को न्यूनतम करना।

(4) उत्पादन प्रक्रिया में विशिष्टीकरण के लाभों को प्राप्त करने का अथक प्रयास करना। 

(5) उत्पादन प्रक्रिया की प्रारंभिक अवस्था से अन्तिम अवस्था तक कच्चे माल के प्रवाह को निर्धारित करना।

(6) आन्तरिक परिवहन व्यवस्था को प्रभावी एवं कुशलतम बनाना। 

(7) उत्पादन प्रक्रिया में यंत्रों तथा अन्य प्रक्रियाओं का अनुकूलतम उपयोग करना।

(8) सामग्री के समुचित प्रवाह का निर्धारण कर उसकी गुणवत्ता को बनाये रखने का अथक प्रयास करना।

मार्ग/पथ-निर्धारण, उत्पादन नियोजन का एक बुनयादी कार्य है, जिसके अन्तर्गत निम्नलिखित प्रक्रिया/कदमों का उपयोग किया जाता है— 

(1) सर्वप्रथम उत्पादन किये जाने वाली वस्तु का विश्लेषण किया जाता है जिसमें पुर्जो के निर्माण करने अथवा बने बनाये खरीदने का निर्णय किया जाता है।

(2) कच्ची/पक्की माल सूची तैयार करना। इस सूची को बनाते समय उसका नाम, पहचान चिह्न, ब्राण्ड, किस्म, मात्रा आदि का पूर्ण विवरण लिखना आदि ताकि क्रय करने की व्यवस्था की जा सके।

(3) निर्माण क्रियाओं के अनुक्रम का निर्धारण करना और एक मार्ग-पत्र तैयार करना। 

(4) उत्पादित की जाने वाली वस्तुओं/संघटकों या पुर्जों की मात्रा को विभिन्न खेपों में बाँटना।

(5) मार्ग में प्रवाह के दौरान संभावित छीजत सामग्री का पता लगाने हेतु कारणों/बिन्दुओं का निर्धारण करना।

(6) लागत लेखा विभाग द्वारा उत्पादन लागतों की गणना एवं विश्लेषण करना।

(7) अंत में उत्पादन नियंत्रण चार्ट तैयार किया जाता है। 

उत्पादन प्रक्रिया के मार्ग निर्धारण में मितव्ययी एवं श्रेष्ठ मार्ग को ज्ञात करके सामग्री के रख-रखाव एवं दोहरेपन को न्यूनतम करने का प्रयास किया जाता है। किन्तु फिर भी इससे निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं-

(1) अनेक अपव्ययों को दूर किया जा सकता है। 

(2) उत्पादन कार्य का विभाजन, रुचिनुसार कार्य देना, विशेषज्ञ की सेवा का लाभ उठाना आदि विशिष्टीकरण के लाभ प्राप्त होते हैं। 

(3) संस्था में निर्माणाधीन आदेश की प्रगति की जानकारी तुरन्त हो जाती है।

(4) संस्था में उत्पाद की किस्म अच्छी होती है। 

(5) समय रहते हुए उत्पादन प्रक्रिया में छीजत को कम किया जा सकता है।

(6) उत्पादन कार्य कम होने की दशा में किसी पथ को कम करना सहज है। 

(7) सामग्री अन्तरण एवं आन्तरिक हस्तन की समस्या से बच जाते हैं।

(8) उत्पादन के संसाधनों का कुशलतम प्रयोग संभव है।

(II) अनुसूचियन (Scheduling)—

उत्पादन नियंत्रण के अन्तर्गत अनुसूचियन का अर्थ किसी प्रक्रिया को प्रारंभ करने से लेकर उसके समापन तक विभिन्न उपक्रियाओं में लगने वाले समय का निर्धारण करने से होता है। अन्य शब्दों में, विशिष्ट कृत्यों को एक सामान्य समय तालिका में संयोजित करना अनुसूचियन कहलाता है। इससे प्रत्येक आदेश अनुबंधित दायित्व के अनुसार या बड़े पैमाने पर निर्मित होता रहता है और प्रत्येक हिस्सा जोड़ने के लिए ठीक समय पर उपलब्ध होता है। अनुसूचियन को स्प्रैंगल एवं लैन्सबर्ग ने इस प्रकार परिभाषित किया है-

‘अनुसूचियन के अन्तर्गत इस बात का निर्धारण किया जाता है कि कुल कितना कार्य करना है, उस कार्य का प्रत्येक तत्व कब तक प्रारंभ होगा और कब अंत होगा।”

इस प्रकार किसी कार्य को प्रारंभ करने और समाप्त करने और इसके मध्य विभिन्न क्रियाओं को पूरा करने में लगने वाले समय का निर्धारण करना ही अनुसूचियन कहलाता है। इस प्रकार अनुसूचियन में निम्नलिखित तीन बातें सम्मिलित की जाती हैं-

(1) उत्पादन का कार्य अलग-अलग विभागों में कब-कब पहुँचेगा, 

(2) इन विभागों में संबंधित उत्पादन प्रक्रिया में कितना समय लगेगा, एवं

(3) यह कार्य एक विभाग से दूसरे विभाग में कितने समय में पहुँचेगा। 

अनुसूचियन का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक कार्य को समय पर पूर्ण करना है और सुपुर्दगी निर्धारित तारीख को करनी है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अन्य उद्देश्य इस प्रकार हैं-

(1) उत्पादन नियोजन एवं नियंत्रण में समन्वय स्थापित करना।

(2) सभी यंत्रों, साधनों, मशीनों, कर्मचारियों, अधिकारियों का उपयोग करना ताकि अनावश्यक समय एवं धन खर्च न हो।

(3) सामग्री की यथासमय आपूर्ति को सुनिश्चित करना और सामग्री में अनावश्यक विनियोग को टालना ।

(4) समय-समय पर कार्य प्रगति का मूल्यांकन करना।

(5) कारखाने के विभिन्न अनुभागों के कार्यों में संतुलन एवं समन्वय स्थापित करना। 

(6) सभी अनुभागों में कार्यों का समान वितरण करना।

(7) कार्य स्थल पर अनावश्यक भीड़-भाड़ होने से बचाना।

अनुसूचियन को अनेक घटक प्रभावित करते हैं। अतः किसी कारखाने में अनुसूचियन करते समय निम्नलिखित बातें ध्यान में रखनी चाहिए-

(1) उत्पादन की मात्रा के अनुरूप उत्पादन में लगने वाले समय को निश्चित करना चाहिए।

(2) अनुसूचियन करते समय उत्पादन नीति को ध्यान में रखना चाहिए।

(3) मध्यस्थों के पास उपलब्ध माल का स्टॉक कितना है, उन्हें कब आवश्यकता होगी, उसी के अनुसार उत्पादन में लगने वाला समय निश्चित कर माल की आपूर्ति करने का निर्णय लेग चाहिए। 

(4) ग्राहकों की माँग कब एवं किस प्रकार की होगी ?

(5) शक्ति के साधनों की उपलब्धता की जानकारी रखना अन्यथा विद्युत कटौती की दशा में समय पर उत्पादन नहीं होगा।

(6) संयंत्रों की उत्पादन क्षमता कितनी है ?

(7) विद्यमान उत्पादन कार्यभार एवं श्रमशक्ति की उपलब्धता में तालमेल रखना।

(8) एक जगह से दूसरी जगह और एक विभाग से दूसरे विभाग में लगने वाला समय कितना होगा ?

अनुसूचियन प्रक्रिया में दो प्रकार की अनुसूचियाँ बनायी जाती है-

( 1 ) मास्टर अनुसूची- इस अनुसूची में उन तिथियों को दर्शाया जाता है, जिन तिथियों को विभिन्न उत्पादों या उत्पाद संघटकों का उत्पादन किया जाता है। किन्तु जब कोई तुरन्त आपूर्ति का आदेश आता है तो उसे उस अनुसूची में पहला स्थान दिया जाता है। 

(2) कारखाना या निर्माण अनुसूची- इस अनुसूची में कारखाने के अन्तर्गत एक निर्धारित मात्रा में उत्पादों के उत्पादन की प्रत्येक क्रिया के लिए समय दर्शाया जाता है। इसके अतिरिक्त किसी विशेष दिन या सप्ताह में कौन सा उत्पाद कितनी मात्रा में निर्मित करना है।

उत्पादन प्रक्रिया का अनुसूचियन करने से निम्नलिखित लाभ होते हैं-

(1) उत्पादन कार्यक्रम को आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है।

(2) उत्पादन संयोजन (Production Assembling) सरल हो जाती है। 

(3) विवेकपूर्ण अनुसूचियन बनाकर आवश्यक स्टॉक को कम किया जा सकता है।

(4) उत्पादन लागत में कमी की जा सकती है। 

(5) मानवीय प्रयत्नों की भी बचत की जा सकती है।

(6) स्टॉक आदेश का समय पर निष्पादित संभव होता है। 

(7) उत्पाद क्षमता का अनुकूलतम उपयोग संभव होता है।

(III) प्रेषण (what is Despatching)— 

निर्गमन का शाब्दिक अर्थ होता है— निर्दिष्ट स्थान को भेजना अथवा किसी वस्तु को उसको ठीक राह पर चालू कर देना है। किन्तु उत्पादन प्रक्रिया/नियंत्रण के संदर्भ में प्रेषण का अभिप्राय निर्धारित मार्ग एवं अनुसूची के अनुरूप उत्पादन के आदेश को प्रसारित करने से है। अन्य शब्दों में, प्रेषण उत्पाद नियंत्रण की प्रारंभिक कार्यवाही है, जिसमें मूल रूप से सूचिपन के द्वारा निर्धारित प्राथमिकता के अनुरूप आदेशों का निर्गमन सम्मिलित है।

अल्फोर्ड एवं वीटा ने प्रेषण की परिभाषा इस प्रकार दी है-

“प्रेषण आदेशों एवं निर्देशों को जारी करके उत्पादन गतिविधियों को क्रियाशील बनाने की दैनिक क्रिया है। यह आदेश मार्गशीट एवं अनुसूची चार्ट में पूर्व नियोजित समय तथा क्रम के अनुसार दिये जाते हैं।”

इस प्रकार प्रेषण या निर्गमन, अनुसूची द्वारा नियोजित कार्य को वास्तविक कार्य में रूपान्तरण करता है। इसमें पूर्व निर्धारित मार्ग तथा अनुसूचियन के अनुसार कार्य प्रारंभ करने के आदेश जारी किये जाते हैं और विभिन्न भौतिक तथा मानवीय साधनों को कार्य सौंपा जा सकता है। 

प्रेषण का मुख्य उद्देश्य अनुसूची की समय-सारणी के अनुसार उत्पादन कार्यों के लिए आदेशों का प्रसारण करना है। उद्देश्य की पूर्ति हेतु प्रेषण के निम्नलिखित अन्य उद्देश्य हैं- 

(1) वास्तविक कार्य निष्पादन का आदेश जारी करना।

(2) उत्पादन तथा उत्पादन के अधीन सामग्री के संबंध में सूचनाएँ उपलब्ध करना। 

(3) उत्पादन प्रक्रिया को नियमित एवं व्यवस्थित करना।

(4) नियंत्रण करने हेतु उत्पादन प्रबंधकों की सहयता करना।

(5) उत्पादन विभाग से संबंधित सभी कर्मचारियों के कार्यों में संतुलन बनाये रखना।

(6) पर्यवेक्षकों, अग्रव्यक्तियों (formen) एवं निरीक्षकों आदि कार्यों के लिए आधार प्रदान करना।

(7) लेखापाल को प्रत्येक आदेश की सामग्री एवं श्रम की लागतों से संबंधित आँकड़े उपलब्ध कराना। 

(8) उत्पादन प्रबंधकों को चालू कार्यों के संबंध में सही तथा नवीनतम स्थिति से अवगत कराना। 

प्रेषण के अन्तर्गत प्रायः निम्नलिखित क्रियाएँ सम्मिलित होती हैं–

(1) अलग-अलग यंत्रों एवं श्रमिकों को उत्पादन का कार्य सौंपना। 

(2) स्थान, कच्चा माल, औजार एवं साजो-सामान आवश्यकता के अनुरूप उपलब्ध करवाना तथा इसके उपयोग के अधिकार देना।

(3) श्रमिकों से अपना-अपना कार्य सम्पन्न करवाने के लिए आवश्यक उत्पादन आदेश निर्देश, एवं मानचित्र देना।

(4) उत्पादन के कार्य को समय-सारणी के अनुसार नियंत्रित करना।

(5) एक प्रक्रिया से कार्य समाप्त हो जाने पर तुरन्त उत्पादन सामग्री को दूसरी प्रक्रिया के लिए पहुँचाने की व्यवस्था करना।

उत्पादन से संबंधित प्रेषण की क्रिया दो प्रकार से हो सकती है-

( 1 ) केन्द्रित प्रेषण- इसके अन्तर्गत प्रेषण विभाग द्वारा समस्त आदेश सीधे मशीन पर कार्यरत श्रमिकों या उत्पादन स्थल पर कार्यरत श्रमिकों के पास भेजे जाते हैं। 

(2) विकेन्द्रित प्रेषण- इसके अन्तर्गत आदेश धे श्रमिकों को न भेजे जाकर संबंधित विभागों को भेज दिये जाते हैं, और विभागों से संबंधित श्रमिकों के पास पहुँचते हैं।

प्रेषण की उपयोगिता (लाभ) को इन बिन्दुओं से स्पष्ट किया जा सकता है- 

(1) उत्पादन प्रबंधकों को नियंत्रण करने में काफी सहायता मिलती है।

(2) इससे उत्पादन प्रक्रिया नियमित नियंत्रित एवं व्यवस्थित रहती है। 

(3) उत्पादन विभाग के सभी कर्मचारियों के कार्यों में तालमेल एवं संतुलन रहता है।

(4) उत्पादन केन्द्रों एवं विभागों को आवश्यक सामग्री तथा उपकरण सहज उपलब्ध हो जाते हैं।

(5) उत्पादन कार्यों के लिए वास्तविक कार्य निष्पादन का आदेश जारी रहता है। 

(IV) अनुवर्तन (what is Follow-up)—

अनुवर्तन का अर्थ एक ऐसी प्रक्रिया से है जिसमें यह देखा जाता है कि निर्धारित माँगों तथा अनुसूचियों के अनुसार कार्य हो रहे हैं या नहीं। अन्य शब्दों में, अनुसरण कार्य उत्पादन प्रक्रिया से संबंधित समस्याओं, अवरोधों तथा विचलनों को रोकता है तथा भविष्य में उनको दूर करने के लिए समायोजन एवं प्रावधान करने में सहायता करता है। अनुवर्तन की परिभाषा बेथल, अटवाटर, स्मिथ एण्ड सेकमैन ने इस प्रकार दी है-

‘अनुवर्तन अथवा कार्य सम्पादन, उत्पादन नियंत्रण प्रक्रिया की वह शाखा है जो उत्पादन प्रक्रिया के द्वारा सामग्री एवं उपकरणों की प्रगति का नियंत्रण करती है।”

इस प्रकार अनुवर्तन उत्पादन लक्ष्यों एवं प्रक्रियाओं की प्रगति के अभिलेखन, मूल्यांकन एवं प्रतिवेदन का कार्य है, जिसके द्वारा यह निश्चित करने का प्रयास किया जाता है कि उत्पादन कार्य निश्चित समय पर पूरा हो जाये ताकि समय पर ग्राहकों को माल की पूर्ति की जा सके।

अनुवर्तन का मुख्य उद्देश्य सामग्री की गति तथा कुल उत्पादन क्रिया में शीघ्रता लाना होता है। इसके अन्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

(1) पूर्व निर्धारित उत्पादन योजनाओं से वास्तिविक निष्पादनों की तुलना करना। 

(2) वास्तविक उत्पादन निष्पादनों के अभिलेख रखना।

(3) विचलनों के बारे में आवश्यक प्रतिवेदन प्रस्तुत करके सुधारात्मक कार्यवाही करने के लिए उच्चाधिकारियों को प्रस्तुत करना।

(4) वास्तविक निष्पादनों और उत्पादन योजनाओं के मध्य विचलनों को ज्ञात करना और उनकी गंभीरता को मापना।

अनुवर्तन के तीन प्रकार होते हैं-  

(1) सामग्री अनुवर्तन- यह कार्य दो स्तरों पर किया। जाता है-क्रम विभाग के स्तर पर, तथा उत्पादन विभाग के स्तर पर। 

(2) कार्य प्रगति अनुवर्तन- इसमें आदेशित कार्य की प्रगति का अनुवर्तन किया जाता है। 

(3) संयोजन एवं संरचना अनुवर्तन- इसमें यह देखा जाता है कि उत्पादन निर्माण के लिए सभी पुर्ज अथवा संघटक समय पर उपलब्ध हुए हैं या नहीं।

अनुगमन कार्य एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। इसलिए उत्पादन विभाग में एक पृथक से अनुगमन अनुभाग स्थापित किया जाता है जो मुख्यतः ये कार्य करता है—

(1) प्रत्येक उत्पादन कार्य की दैनिक प्रगति का निर्धारित प्रारूप में प्रतिवेदन करना। 

(2) कार्य प्रगति का नियोजित कार्य से विचलन ज्ञात करना और यह पता लगाना कि विचलन के कारण क्या-क्या हैं ? 

(3) जब विचलन के कारणों का पता लग जाता है, तब उसकी रिपोर्ट तैयार करके उच्च प्रबंधकों को भेजना।

(4) संयंत्रों एवं मशीनों पर कार्यभार का निरीक्षण करना और संतुलित कार्यभार बनाये रखने हेतु प्रयास करना।

(5) कारखाने में समाग्री पहुंचाने की व्यवस्था करना ताकि यथासंभव उत्पादन प्रारंभ हो।

(6) कार्य की किस्म का निरीक्षण करना। 

(7) अनुसूची के अनुसार उत्पादन कराने का प्रयास करना ।

(8) उत्पादन कार्य में लगे श्रमिकों/कर्मचारियों एवं अधिकारियों को प्रेरित करना।

(9) मार्ग निर्धारण, अनुसूचियन, प्रेषण की कमियों के कारण, सामग्री की कमी के कारण, उपकरणों तथा मशीनों में टूट-फूट के कारण एवं अन्य कारण से उत्पादन में होने वाली देरी को रोकना।

(10) उत्पादन बाधाओं को उत्पन्न न होने देने के उपाय करना।

             

Leave a Comment